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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4120
आईएसबीएन :000000

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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है

इष्टदेव का निर्धारण


भौतिक प्रगति के लिए भौतिक पुरुषार्थ करने पड़ते हैं और आत्मिक प्रगति के लिए चेतना का स्तर उठाने और प्रखरता को आगे बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। पेट में भूख लगती है, तो आहार उपार्जन करने के लिए दौड़-धूप करना आवश्यक हो जाता है। शरीर में समर्थता बढ़ने पर कामुकता की तरंगें उठती हैं और साथी ढूँढ़ने, परिवार बसाने का मानसिक ताना-बाना बुना जाने लगता है। प्राणि-जगत का अस्तित्व और पराक्रम, इन्हीं पेट-प्रजनन के दो गति चक्रों के सहारे सरलतापूर्वक लुढ़कता रहता है। आत्मिक प्रगति का प्रसंग दूसरा है। चौरासी लाख योनियों के संगृहीत स्वभाव-संस्कार मनुष्य जीवन के उपयुक्त नहीं रहते, ओछे पड़ जाते हैं। बच्चे के कपड़े बड़ों के शरीर में कहाँ फिट होते हैं ? मानव जीवन की सार्थकता के लिए जिस सद्भाव से अन्त:करण को और सत्प्रवृत्तियों से शरीर को सुसज्जित करना पड़ता है, वे पूर्व अभ्यास एवं प्रभावी प्रचलन न होने के कारण कठिन पड़ते हैं। वह सहज सुलभ नहीं, वरन् प्रयत्न-साध्य हैं। नीचे गिरने में पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का क्रम ही निरन्तर सहायता करता रहता है, पर ऊंचा उठने के लिए विशेष साधन जुटाने होते हैं। आन्तरिक अभ्युत्थान के इसी पराक्रम को साधना कहते हैं।

साधना मार्ग पर चलने के लिए प्रथम चरण 'इष्ट निर्धारण' का उठाना पड़ता है। इष्ट अर्थात् लक्ष्य। प्रगति के लिए आन्तरिक महत्त्वाकांक्षा स्वाभाविक है, पर उसका स्वरूप भी तो निश्चित होना चाहिए। उमंगें असीम हैं, उनकी दिशा-धारा भी अनेकों हैं। पानी पर उठने वाली लहरों की तरह महत्त्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं। एक के बाद दूसरी लहरें उठती हैं और हवा के झोंके के साथ अपनी दिशा-धारा बदलता रहती हैं। प्रवाह दिशा धारा न हो, तो पराक्रम अस्त-व्यस्त रहेगा। किसी लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव ही न हो सकेगा। दिशाविहीन भगदड़ से मात्र थकान और निराशा ही हाथ लगती है। कस्तूरी के हिरण को अभीष्ट स्थान का पता नहीं होता, फलतः वह भटकता और थकता-खिन्न होता रहता है। मानवी अन्तरात्मा की भूख, प्रगति की दिशा में अग्रसर होने की है, महत्त्वाकांक्षाओं के उभार इसी का परिचय देते हैं। आत्मिक प्रगति का कोई निश्चित लक्ष्य एवम् स्वरूप सामने न रहने से वह कायिक लिप्साओं की ओर ही लुढ़कने लगती है, है। इस स्तर की सफलताएँ काया को भले ही कुछ सुख-सुविधाएँ प्रदान कर सकें, अन्त:करण की उच्चस्तरीय प्रगति में इससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती। अनियंत्रित भौतिक महत्वाकांक्षाएँ आतुर होकर कुकर्म करके भी वैभव उपार्जन में जुट पड़ती हैं और उलटे अध:पतन एवं विक्षोभ का कारण बनती हैं।

साधक का कोई न कोई इष्ट देव होता है, साधना का विधि-विधान उसी के अनुरूप चलता है। यों उपास्य केवल एक ही है-दिव्य जीवन, किन्तु उसके लिए पुरुषार्थ करने की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि उपासनात्मक उपचारों के सहारे बनती हैं। दिव्य जीवन की चरम परिणति ही पूर्णता है। इसी स्थिति को स्वर्ग एवं मुक्ति की प्राप्ति कहते हैं। आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वर-दर्शन भी यही है। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जो पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसे साधना-विधान के रूप में अपनाना पड़ता है। साधना में शिक्षा और प्रेरणा का समावेश होता है, फलत: उसकी प्रतिक्रिया जीवनोत्कर्ष के रूप में प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती है।

प्रगति के किस बिन्दु तक पहुँचना है, इसका सुदृढ़ पूर्वनिश्चय होना आवश्यक है। भव्य भवन बनाने वाले, सर्वप्रथम अभीष्ट निर्माण के नक्शे या मॉडल बनाते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए किस मार्ग से, जाना है-किस स्तर के साधन जुटाने हैं इसके लिए कितने ही प्रकार के निर्धारण अपनाये जाते रहे हैं। इन्हें इष्टदेव कहते हैं। राम भक्त बनने के लिए हनुमान, मर्यादा पुरुषोत्तम बनने के लिए सविता को इष्ट बनाने की परम्परा है। इस निर्धारण से मन को एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ने और तदनुरूप प्रयास करने, साधन जुटाने का मार्ग मिल जाता है। इस निर्धारण से न केवल प्रयास को दिशा मिलती है, वरन् उसी स्तर के अन्तःक्षेत्र की प्रसुप्त शक्तियाँ भी जगने लगती हैं। साथ ही परब्रह्म के शक्ति भण्डार में से उसी स्तर की अनुग्रह-वर्षा भी अनायास ही आरम्भ हो जाती है। आकांक्षाएँ आवश्यकता बनती हैं, आवश्यकता पुरुषार्थ की प्रेरणा जगाती है। प्रेरणा भरे पराक्रम में प्रचण्ड चुम्बकत्व होता है। वह तीन दिशा में काम करता है। प्रथम व्यावहारिक गतिविधियों को अभीष्ट की प्राप्ति के अनुरूप बनाता है। द्वितीय प्रसुप्त क्षमताओं को जगाकर प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए अदृश्य आधार खड़े करता है। तृतीय दिव्य लोक के दैवी अनुदानों के बरसने का विशिष्ट लाभ मिलता है। तीनों के सम्मिलन से त्रिवेणी संगम बनता है।

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    अनुक्रम

  1. श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
  2. समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
  3. इष्टदेव का निर्धारण
  4. दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
  5. देने की क्षमता और लेने की पात्रता
  6. तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
  7. गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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